ऊटी यात्रा 7 दिसम्बर से 13 दिसंबर 2011
7 दिसंबर 2011 को हम 6 दम्पति ( मैं सूर्य प्रकाश विद्यालंकार एवं श्रीमती बीना , श्री विनोद गुप्ता एवं श्रीमती इंदिरा , श्री राजेंद्र प्रसाद अग्रवाल एवं श्रीमती अंजू , श्री अशोक शास्त्री एवं श्रीमती उषा , श्री नरेंद्र बंसल एवं श्रीमती साधना , श्री श्योराज सिंह एवं श्रीमती सिंह ) यात्रा के लिए घर से प्रस्थान किये . सुबह 6 बजे के लगभग सभी तैयार होकर गाड़ी में बैठ गये थे . दिल्ली एयरपोर्ट के लिए चल पड़े . लगभग 6 .30 पर हम गाजियाबाद से बाहर आ गये . मन में बहुत ही उत्साह था . नई जगह देखने और घूमने का चाव था . हवाई-यात्रा का चाव तो था , पर इतना नहीं था . क्योंकि इससे से पूर्व एक वर्ष पहले हम हवाई यात्रा कोच्ची के लिए कर चुके थे . तब हम केरल एवं कन्याकुमारी तक होकर आये थे .
हवाई - यात्रा की सभी औपचरिकताओं से हम पहले से ही परिचित थे . इस वर्ष मात्र 3 घंटों की ही फ्लाईट थी . फ्लाईट 9 .30 सुबह की थी . हम लगभग 8 बजे तक एयरपोर्ट पहुँच गये थे . यात्रा के प्रबंधक श्री विनोद गुप्ता जी थे . उन्हें इस सबका बहुत लम्बा अनुभव है तथा संयोजन का कार्य श्री राजेन्द्र जी कर रहे थे . नाश्ता हम अपना लेकर गये थे . सब ने एयरपोर्ट पर मिलकर खाया . हम बहुत पहले ही पहुँच गये थे . काफी समय था . चेकिंग आदि के बाद भी काफी समय था . इधर - उधर मटर-गस्ती करते रहे और वैसे ही टहलते रहे . हम तो सैंडविच लेकर गये थे , पर शास्त्रीजी पूरी के साथ करेले की स्वादिष्ट सब्जी लेकर गये थे . जिसे सब करेली की सब्जी कहकर आनन्द लेकर खाते रहे . बहुत ही आनंद आता रहा . कोई कभी इधर-उधर चला जाता . इस प्रकार धीरे-धीरे 9 बजते चले गए . नजर फ्लैश बोर्ड पर जाने लगी . उसमें फ्लाईट नम्बर आ रहे थे . हमें बंगलौर की फ्लाईट का इंतजार थी . थोड़ी देर में बेंगलूर की फ्लाईट का नम्बर दिखाई देने लगा . हमें इंडिगो की फ्लाईट से जाना था . हम सबने अपना सामान उठा लिया . केबिन बैग आदि ही थे . लाइन में लगकर टिकट दिखाकर हवाई जहाज के लिए बस में सवार हो गये . बस भरी हुयी थी , खड़े होकर ही यात्रा करनी पड़ी . ज्यादा दूर का सफर नहीं था . कुल दो किलोमीटर ही जाना था . उसके बाद हवाई जहाज में बैठ गये . मुझे और बीनाजी को विंडो की सीट मिली थी . बैठकर चैन आया .
दिन का समय था . बाहर का दृश्य अच्छा नजर आ रहा था . थोड़ी देर में हवाई जहाज ने चलना शुरू कर दिया . ग्रीन सिगनल न मिलने के कारण जहाज पहले रुका रहा और बाद में वह उड़ान भरने लगा . बहुत ही आनंद आ रहा था . नीचे के दृश्य बहुत ही सुवाहने थे . सब कुछ बहुत छोटा नजर आ रहा था . थोड़ी देर बाद जब जहाज ऊपर चला गया तब बादल ही बादल नजर आ रहे थे . हम खाना खाकर बैठे थे . प्यास लगने लगी . पिछले वर्ष फ्लाईट में तो पानी की बोतल दी गयी थी . इस वर्ष प्रतीक्षा करते रहे , पर पानी की बोतल भी नहीं आई . पहले स्पाइस जेट की फ्लाईट से गये थे . इस बार इंडिगो की फ्लाईट थी . इसमें पानी ही नहीं आया . थोड़ी देर बाद एक ट्राली में पानी और अन्य खाने का समान लेकर दो एयर होस्टेस आयीं . वे पैसे लेकर सामान दे रहीं थीं . दो जग में पानी ऊपर रखा हुवा था . बीनाजी ने पानी माँगा और उसने दो छोटे-छोटे गिलास में थोडा - थोडा पानी दिया . उनका यह व्यवहार बड़ा अजीब- सा लगा . चाय और काफी भी उनके पास कुछ नहीं थी . वे तो बस सैंडविच तथा खाना आदि दे रहीं थीं . जबकि पहले चाय आदि का भी इंतजाम था . दो घंटे बाद कुछ थोडा पानी आदि पुन: लिया . एक रूप से वहां तो पानी का भी तोता पड़ गया था . पर किया भी क्या जा सकता था . खैर इसी प्रकार समय बिताते रहे . लगभग 1 बजे के आस-पास फ्लाईट ने टेकओवर किया .
बंगलौर एयरपोर्ट पर पहुँचते ही सामान आदि लेकर पहले से बुक बस की प्रतीक्षा करने लगे . वहां रूककर थोड़ी देर चाय आदि लेनी चाहिए थी , कुछ फ्रेश होना चाहिए था . दिल्ली की अपेक्षा यहाँ मौसम गर्म था . दिल्ली के पहने गर्म कपड़े उतारने पड़े थे . बस थोड़ी दूर खड़ी थी . ट्राली में सामान लादकर वहां तक गये . प्यास लग रही थी , पर पानी नहीं था . दिल्ली से चलते समय सारा पानी फेंक दिया गया था . सोचा था कि फ्लाईट में तो पानी मिल ही जायेगा , क्योंकि ऐसा ही पहला अनुभव था . पर इस बार तो सभी कबाड़ा हो गया . मन में बहुत ही क्रोध आया . एयर पोर्ट पर फ्रेश होकर ही चलना चाहिए था . खैर जैसे तैसे बस में बैठे और ड्राइवर से एसी चलाने को कहा . थोड़ी देर एसी चला पर थोड़ी देर बाद कुछ लोगों को एसी से परेशानी होने लगी और फिर एसी बंद कर दिया गया . बंगलौर से सीधा मैसूर जाना था . लगभग 4 घंटे का रास्ता था . पर मेरा तो प्यास के कारण बुरा हाल था . मैंने राजेंद्रजी से कहा कि पहले रूककर कहीं पानी ले लो . ताकि पानी पीकर कुछ चैन आये . पानी पीकर कुछ राहत - सी महसूस हुयी . मन में चैन आया .
फिर हम मैसूर की ओर चल पड़े . रास्ते में एक स्थान पर ड्राइवर ने कहा कि यह वह स्थान है , जहाँ ' शोले ' की शूटिंग हुयी थी . वहां छोटी - छोटी पहाड़ियां थीं . उन पहाड़ियों को देखकर गब्बर और शाम्भा याद आया . फिल्म के कई सीन सजीव हो उठे . वास्तव में वहां पहाड़ियां भी वैसी ही थीं . देखकर अप्पुर्व उत्साह और जोश बढ़ गया . मन में कुछ ख़ुशी हुयी कि शूटिंग का स्थान तो देखा . वह भी शोले पिक्चर का . कुछ दूर चलने पर रामगढ़ भी आ गया , जिस रामगढ का शोले में बहुत नाम सुना था . दिल बाग़-बाग़ हो गया . आपस में सब इस जगह की चर्चा करने लगे . उचक-उचक कर सभी देख रहे थे . वहां रुकने की इच्छा तो बहुत थी , पर समय का अभाव था . बस आगे बढ़ती गयी . रास्ते में एक जगह खाना खाने के लिए रुके . समय भी लगभग 3 बज गये थे . कुछ भूख भी लग रही थी . चाय के साथ खाना खाने का निर्णय भी किया गया . बीनाजी ने कहा कि खाना तो अपने पास है . उसे ही खा लेंगे और चाय आदि पी लेंगे .
वहां बैठकर कुछ अपना खाना और कुछ वहां से मंगवाया . बड़ी तसल्ली हुयी . फ्रेश आदि होकर पुन: सभी बस में सवार हो गए . बस फिर अपने गंतव्य की ओर चल पड़ी . कुछ देर टीवी चलवा कर पिक्चर आदि देखी गयी . समय तो बिताना ही था . निश्चय हुवा कि मैसूर में होटल में जाने से पूर्व अत्यधिक प्रसिद्द ' वृन्दावन गार्डेन ' को देखा जाये . ड्राइवर ने बताया कि यह रास्ते में ही थोड़ी दूर पर पड़ेगा . कल समय निकलना कठिन हो जायेगा . और वैसे भी वह शाम को ही खुलता है . शाम भी होने लगी थी . लाइट में ही उसे देखने में मजा होता है . वहां पहुँच कर उतना आनंद नहीं आया , जितना आना चाहिए था . लाईट की पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी . वहां कुछ फोटो आदि भी खींचे . गार्डन विशाल क्षेत्र में फैला हुवा था . वहां वोटिंग आदि की व्यवस्था भी थी . कुछ ने वोटिंग की इच्छा जाहिर भी की . पर समय अभाव के कारण अधिकांश की इच्छा नहीं हुयी . कुछ थकावट भी होने लगी थी . सुबह भी जल्दी के उठे हुवे थे . अब तो होटल में जल्दी से पहुँच कर विश्राम करने का मन कर रहा था . शहर में प्रवेश करने के बाद होटल खोजने की स्थिति हो गयी . कुछ देर इधर-उधर घूमना पड़ा . पर होटल का नाम समझ नहीं आ पा रहा था . कुछ कह रहे थे की वैसुउराय है और कुछ कह रहे थे ' वैश्रीराय ' पर लिखी हुयी स्पेलिंग से कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहा था . बाद में कुछ देर बाद खोजने पर पता चला कि होटल का नाम ' वायसराय ' है . यह हमारी कल्पना से परे था . यह होटल ' हर्षा रोड ' पर स्थित था . रात के 9 बजे के बाद होटल में पहुँच पाए . तब जा कर चैन आया .
होटल पर पहुँचते ही फटाफट सामान निकलवाने में मुझे कुछ समय लगा . मैं सामान को उतरने की इंतजार करता रहा . बीनाजी तथा अन्य महिलाएं कमरे की चाबी लेकर अपने-अपने कमरे में पहुँच गयी थीं . कमरा तीसरी मंजिल पर था . लिफ्ट से ही सामान ऊपर पहुँचाया गया . कमरे में थोड़ा विश्राम करके . हम नीचे डाइनिंग हाल में आ गये . कमरा साफ़-सुथरा और हवादार था . होटल का परिवेश भी अच्छा था . खाना अपनी पसंद का खाया . स्वाद में कुछ अंतर तो था ही . रोटी दाल और सब्जी सभी कुछ था . बाद में आइसक्रीम भी खायी . खाना खाने के बाद ऊपर कमरे पर सोने चले गए .
प्रात:काल जल्दी उठ गए . सुबह बाहर विशेष रूप से फ्रेश होने के लिए बेडटी की आवश्यकता अनुभव होती है . सुबह के छ बज रहे थे , हम नीचे रिसेप्शन पर आये तो पता चला कि बेड टी तो आठ बजे के लगभग मिल सकती है . इसके बाद तो नाश्ते का समय हो जायेगा . अत: बाहर ही कहीं चाय तलाशने की इच्छा के कारण घुमने लगे . जब होटल से निकल कर बायीं ओर गए और बहुत दूर तक गए तो होटल तो बहुत नजर आये पर चाय की दूकान कहीं दिखाई नहीं दी . फिर वापिस लौट चले तथा घूमकर दायीं तरफ चले तो एक तरफ चाय की दुकान दिखाई दी . वहां से चाय आदि पी . बिस्कुट आदि हमारे साथ ही थे . दिन निकलने लगा था . प्रकाश फैलने लगा सभी दृश्य स्पष्ट होने लगे . चाय की दुकान के सामने टाउन हाल था तथा उसमें बहुत बड़ा पार्क भी था . पता चला कि बायीं ओर मैसूर पैलेस का पीछे का गेट था . गेट के पास ही चौराहे पर वहां के राजा की आदम-कद प्रतिमा थी . बहुत ही खुला और मनोहारी वातावरण था . कुछ बसें भी चल रहीं थीं . लोग उसमें आ जा रहे थे . हम थोड़ी देर एवं कुछ दूर तक वहां घूमने लगे . एक अच्छी चौड़ी सड़क थी . बाद में विदित हुवा कि यह ऊटी कि ओर जा रही थी . वहां ठण्ड बिलकुल भी नहीं थी , जबकि हम दिल्ली से दिसंबर में बहुत ही ठण्ड से आये थे . हमें पंखा चलाना पड़ा था . पर यहाँ मच्छर बिलकुल भी नजर नहीं आये . वैसे शहर में सफाई की व्यवस्था भी अपने यहाँ से बहुत अच्छी थी .
आठ दिसंबर का दिन मैसूर में घूमने का था . सबसे पहले जू देखने का प्रोग्राम बना . हम सभी नौ बजे बस में आकर बैठ गए . जू ज्यादा दूर नही था . बस दस मिनट में पहुँच गए . वहां सबसे पहले जिराफ नजर आये . लम्बी-लम्बी गर्दन वाले कई जिराफ अत्यधिक आकर्षक लग रहे थे . बाड़े में वे कुछ दूर पर ही थे . तथा कुछ घास-फूस आदि खा रहे थे . इसके बाद विभिन्न तोते , पक्षी , भालू , चीते , शेर , हाथी देखते रहे . घूमते-घूमते तो मैं तो थक गया . मैं और गुरु विनोदजी तथा कुछ अन्य भी बैठ गए . बीनाजी तो चुस्त होकर कैमरा हाथ में लेकर कुछ अन्य सदस्यों के साथ घूम रहीं थीं . रजेन्द्रजी में भी बड़ा उत्साह था . सभी पूरा आनंद ले रहे थे . वहां घूमते-घूमते सभी प्राय: थक गए थे . वैसे बी जू आदि में बच्चों का ज्यादा आनंद आता है . एक तरह समय से पहले ही हम सभी जू से बाहर आ गए .
बाहर आकर देखा तो गाड़ी तो खड़ी थी , पर ड्राइवर का कुछ पता नहीं चला . उसे फोन मिलाया तो उसका फोन बंद था . जू के सामने ही पार्किंग की बाउंड्री पर हम सभी जाकर बैठ गए . तथा ड्राइवर की इन्जार की अपेक्षा और कोई चारा नहीं था . वहां तभी राजेंद्रजी एवं शास्त्रीजी ने चीकू एवं संतरे आदि खरीदे और सभी फल आदि खाने लगे . बीनाजी के मोबाइल पर कैमरा ठीक से कार्य नहीं कर रहा था . मैं मोबाइल पर कैमरा ठीक करने का प्रयास करने लगा . पर काफी देर बाद भी कैमरा ठीक नहीं हो सका . लगभग एक घंटे बाद ड्राइवर आया , वह यहाँ स्थित एक रिश्तेदार के यहाँ उसकी बाइक पर बैठ कर चला गया था . उसे उम्मीद थी कि हमें ज्यादा समय जू में लगेगा , पर हम जल्दी ही बाहर आ गए थे . बाहर बैठे हुवे राजेन्द्रजी जू की कुछ फोटो दिखा कर आनंद लेते रहे और विभिन्न रूप में अपनी आदत के अनुसार मजाक आदि करते रहे . फोटो वन-मानुष के भी थे . बस फंसी-ख़ुशी समय व्यतीत का रहे थे . आपस में मिलकर प्रोग्राम बनाने में अपना विशेष ही आनन्द आता है .
इसके बाद मैसूर पैलेस देखने का प्रोग्राम बनाया गया . मैसूर पैलेस में कैमरा ले जाने की अनुमति नहीं थी . कैमरे को क्लाक रूम में जमा करवाना होता था . मोबाईल पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था . कैमरे जमा करवा कर जब प्रवेश करने के लिए उसके प्रांगण गये . तो फोटो खींचने वालों की लाइन ही लग गयी . गाइड भी काफी इकट्ठे हो गए . अनाप-शनाप मांगने लगे . निश्चय हुवा कि गाइड लेना चाहिए पर उनसे सौदा सही पटाया जाये . इन मामलों राजेंद्रजी बहुत ही होशियार हैं . पांच सौ की जगह चार सौ में तैय किया गया . उसने लगभग एक घंटे से ऊपर पूरा महल घुमाया . उसने पैलेस के विषय में बहुत सी बातें बतायीं , कुछ याद रहीं और बहुत सी तो भूल ही गयीं . उन राजाओं के नाम भी इतने लम्बे चौड़े थे कि याद ही नहीं रहते थे . यह बात तो अवश्य ही याद रही कि मैसूर का नाम महिषासुर के नाम से ही पड़ा है . महिषासुर का वध चंडी देवी ने किया था .